सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

रुकसाना बेगम

बेगम रुकसाना बीबी मैं मंसूर लालीवाला आपका इकलौता शौहर एक दरख्वास्त लिए आया हूँ,
कृपया अपनी एकाग्रता को इस दिशा एकत्र कीजियेगा।

उस जले टिंडे की भी क्या सुहावनी सी बात थी,
खाला की बनाई सिवइयों भी इसके आगे खाख थी,

जैसे मधुमास पर बिस्तर की दायीं ओर रखा हल्दी का दूध भी चाशनी सा मिष्ठी लगता है,
तुम्हारी सब्ज़ी में डाला कश्मीरी लाल मिर्च भी कुछ दालचीनी सा स्वादिष्ट लगता है।

भाप से भीगे फुलककों पर तुम्हारे स्पर्श का वह एहसास,
पापड की करारी ध्वनि पर तुम्हारी मंद मुस्कान का आभास,

मुझे याद है जब नन्ही फरीदा की खबर कैसे अचार के बहाने सुनाई थी तुमने,
मुझे याद है तिलगुड़ की इच्छा को कैसे मोतीचूर के बहाने तृप्त करवाई थी हमने।

आज आहार तो बस एक आखरी पूल है पुराने प्यार के टापू पोहोंचनेका ,
टिफ़िन की बातें तोह बस बहाना है तुम्हारे हालेदिल का स्वाद जाननेका।

काश वह नंगे लिपटे जिस्मों की रातें वहीँ थम जाती,
अधूरी रहगई सारी वह बातें लापता बन न बेहजाती।

भौतिक बुनियादों को पक्की करने में यूँ ज़िन्दगी न जुट जाती,
तेरे झुमके गिरवी रखवाने से पहले काश मेरी आँखें खुल जाती।

हाँ, आज भी पुराना प्यार ढूंढता, राह भटक जाता हूँ मैं,
भीनी आँखों की नमी झटकता हर शाम घर आता हूँ मैं।

विक्रेता

काले जूते, पीली कमीज, लाल टाई और ठंडा टिफिन,
जेंटलमेन बने बिक्री करवाने निकल पड़े विक्रेता बिपिन।

सुबह के नाश्ते में साहब की गाली,
दोपहर के भोजन की ग्राहक ने लगा डाली।
शाम की रिपोर्ट के साथ नौकरी जाने की धमकी,
सोचा घर जाकर रोउंगा पर वहां बीवी आ धमकी।

हर शाम बाद ज़हन बस एक ही सवाल अपने आप से दोहराता है,
की कंबखत यह रविवार सोमवार के छ: दिन बाद क्यों आता है?

दोसतों, शूरवीर तोह बस एक बार प्राणों की कुर्बानी कर शहीद कहलाता है,
पर विक्रेता टारगेट की पीड़ा को केरोसिन बना हर सपने को जला पल पल मरता है 

भाभीजी के लिए  किफायती डिटर्जेंट,
चुन्नू के लिए सतरंगी खिलोने,
साहब के लिए छुपे कैमरा वाला पेन,
कांता बाई के लिए नीला लेट्रिन का शैम्पू,

हाँ यही मेरा सत्य है।

काश वे कॉलेज के दिनों मैं हर शाम कबीर के दोहे ना दोहराता,
सॉक्रेटीस के सपनों को पीछे छोड़ मैं थोड़ा गणित पर भी ध्यान लगाता।

आज गंजे को कंगी, और कश्मीर में बर्फ तोह बेच सकता हूँ में,
पर क्या खुदके बीके सपनों को वक्त के दाम वापस खरीद सकता हूँ मैं?

सोमवार, 5 सितंबर 2016

कौन कहता है भगवान् सब देख रहा है...

नज़र लगने का मज़हर भी अपने आप में कुछ विपरीत होता है,
ये वह समय है जब पनौती नसीब से दो कदम आगे चलती है। 

जिससे मिलो कोई न कोई मनहूसियत का वाक्या सुनाता है,
जिसपे दिलो-जान छिड़कते हो वो भी उस समय जान खाता है। 

लोगों को तुम्हारी हरकतें आदतों सी लगने लगती है,
चमन पे खिली फूल पंखुड़ी, मुरझाई काली लगने लगती है।

फुक फुक के कदम रखने पर भी पैर फिसल जाता है,
फुक फुक के दुद्ध पीने पर भी छाछ जला जाता है। 

कब्ज़ की गोली लो तोह दस्त लग जाते हैं,
सर्दी के लक्षण में जान लेवा रोग नज़र आते हैं। 

सौ रुपये किलो सेब से सुलेमानी कीड़ा निकल आता है,
विवाह की बातों के बीच महबूबा का नाम निकल जाता है।

मंदिर में दान करने पर भी दुष्ट दानव चप्पल चुरा जाता है,
दादी के बनाये हलवे के निवालों से उन्ही का बाल निकल आता है।

बच्चों को घुमाने लेजाने से २ मिनट पहले ही दूर का फूफा टपक पड़ता है,
बेटी की फेरों से २ मिनट पहले ही ससुर मारुती ८०० की मांग करता है।

बिन बोले बातें समझने वाला एक ही रातमें अजनबी होजाता है,
अगवाह हवाई जहाज़ को बचाने में कोई मासूम जान गँवा बैठता है।

कुछ ऐसे ही फिसलती रेत सी ज़िन्दगी को मुट्ठी में बाँधने चले हैं हम,
कठपुतली होते हुए भी सारा का सारा खेल संभालने चले हैं हम।

ओ मानव इतना ग़ुरूर भी ना कर अपनी कामयाबी पर,
ओ मानव इतना ग़ुरूर भी ना कर अपनी कामयाबी पर,
क्योंकि शवों में जान फूंकने का काम अबभी प्रयोगशाला में नहीं हो पता है।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

अद्वैतवाद

ये घुसा में तेरे कान में,
अंदर ही अंदर,
विकराल काली सुरांग में,
मेरी खुराक है तुम्हारा कचरा, 
कहते हैं सब मुझे कनखजूरा। 
कभी नाले की आड़ में कभी कचरे के पहाड़ में,
मादा की खोज में घूमे हम भरे बगान में। 
मैं कनखजूरा हूँ।

मिटटी की खुशबू की आस में, मैंने पूरी गर्मी गुज़ारी है,
कूड़े के उस शाही महल में, हम जैसी और बोहोत बिमारी है।
मैं कनखजूरा हूँ।

एक रात में केले के पत्ते पर चढ़ा,
मधुमक्खी के छोटे छत्ते पर बढ़ा,

शहद की उस मीठी खुशबू से मैं ज़रा आकर्षित हो उठा,
कानों की उस दुनिया को छोड़ मैं मीठे मधु का आशिक हो उठा।

रहते वह ऐसे जैसे कोई संकलित परिवार हो,
उड़ते वह ऐसे जैसे खीर गंगा की शीतल धार हो। 

उनके छे पैर है और मेरे सौ,
मेरा दो काम है और उनके सौ। 

काश मेरे भी पंख होते,
काश मेरे भी डंख होते।
पुष्पों की उन महफिलों से मैं भी कभी अमृत चुराता,
मादा को रिझाने काश मैं भी कोई नाच नचाता।

अफ़सोस इस बात का नहीं की में रेंगता हूँ,
अफ़सोस इस बात का भी नहीं की लोगो के कान मैं फाड़ता हूँ,

बस काश ज़िन्दगी में मैं कभी जगह जगह उड़ पाता,
चढ़ने के अलावा काश में भी जगह जगह घूम पाता,

लेकिन आखिरकार में  कानखजुरा हूँ। 
में  कानखजुरा हूँ। 

शुक्रवार, 24 जून 2016

सागर नहीं, मुझे बूँद ही रहने दो...

खिलौना मेरे बचपन का, खोया कहके छुपाया था, 
मंजरे भैया से बचाने हाँ मैंने ठिकाने लगाया था। 

लाल लकीरें हर विषय में पाया था में रोया था,
लाल निशाँ मेरे गाल पे पाया था में रोया था। 
मुझे मारके रोये मैया, नजाने कैसे यह होजाता था?
दूसरी थप्पड़ के डर से यह सवाल वहीँ दब जाता था। 
कोई तोह मेरी बर्फी चुराता है,
कोई तोह मेरे पैसे उड़ाता है,
दादाजी के वहमों का मैं इकलौता साया था। 
घर ने एक भलीभांति चोर हाँ मुझमे ही पाया था  

गर्मी की छुट्टियां आई,
मेरे मोहल्ले में मिटटी आई,
मिटटी के उन टीलों में मैं मंदिर मस्जिद बनाता था,
धर्म ग्रन्थ के ऊपर जाकर बचपन मैं निभाता था।

खेल-कूद तो बाहाना था ग्लूकोस की बोतल चाटने का,
मोटा शरीर तोह बाहाना था मेरी दबी शक्तियां चुपानेका।
डाबर लाल के ज़माने में, मैं अखरोट दांत तोड़ लाता था,
बैंडऐड बिना के ज़माने में मैं घाव पे थूक लगता था। 
चाचा-मामा के घर जाकर मैं उन्हें घोडा बनाता था,
और उनकी दुखती कमर पर फिर में ही मलहम लगता था 

कमज़ोर नहीं कच्चा था में,
उस भोली माँ का छोटा बच्चा था में,
बचपन की इन बातों को मैं कब तक तुम्हे सुनाऊंगा,
वयस्क शरीर में छुपे बच्चे को कबतक बचा मैं पाउँगा।

लोग कहते हैं अब बड़े होजाने को, अपने पैर पे खड़े होजाने को,
ज़िम्मेदारी खुदकी खुद समझाने को, हँसना छोड़ दुखी होजाने को। 
कैसे मैं समझाऊं इन्हे की जवानी के चंगुल में मैं फंस जाऊँगा,
कैसे मैं समझाऊं इन्हे की बिना बचपन के कहीं मैं मरजाऊँगा। 

बुधवार, 1 जून 2016

व्यवसाय

टुटा जूता, फटा थैला, 
इकत्तीस तारिक को मेरा पतलून है मैला। 

घर में मैँ और दरवाज़े पे ताला, 
उधार के चक्कर में निकला मेरा दिवाला।

द्वार पर हर दस्तक लगती है षडियंत्र का खेल मुझे,  
अपना घर ही अब लगता है लेनदारों की जेल मुझे। 

खाने को सिर्फ गाली और जीने को सिर्फ तिनके का सहारा है। 
इस फटेहाल जुआरी को पहली तारीख का वेतन ही गुज़ारा है। 

इस बार के संबलन से वादा है मैं कुछ  बचाऊंगा,
पिछली बार की बचत से माँ को चिमटा दिलाऊंगा। 

इन सपनो को एक दिन मैं ज़रूर पूरा करके दिखाऊंगा,
और यही जूठे वादे करके मैं फिर पैसा जुए पे उड़ाऊंगा।  

लगता है इस बार की बाज़ी तोह मेरी ही है, सोचता हूँ बोली लगालुं थोड़ी ज़्यादा।
ज़र, ज़मीन और जोरू तोह खो ही दी है, इसबार खून बेचकर कमाऊंगा प्यादा।

जुआरी तोह तुम भी हो जो हर घडी एक नया दाव, एक नया पैंतरा खेलते हो,
जुआरी तोह तुम भी हो जो अपनों से ज़्यादा अपने सपनो के बारे में सोचते हो। 

मंगलवार, 29 मार्च 2016

श्रद्धांजलि- पाकिस्तान Easter's हमला- मार्च २७, २०१६

चुटकुलों की बरसातों में, मस्ती-फुलवारियों की सौगातों में,
पल रही थी बच्चों की शाम, ममता के प्यारे आंचलों में। 

भिंडी, गोभी, लौकी, आलू, नजाने क्या क्या लेकर बैठी थी माँ,
बाघन में खेले उसका बच्चा, सब्ज़ी काटे सपना देख रही थी माँ। 

सपने में बच्चा दिखाए रहा था, एक नया सूरज दुनिया को,
अचानक सपना टूटा, जब सुना दहशहत भरी उन चीखों को।

एक मिनट पहले जो बच्चा झूले पे था,
अब चिथड़ों में है।

एक मिनट पहले जो माँ सपनो में थी,
अब सदमे में है।

खून के फुवारे उछालती, नजाने किन भेड़ियों की होली है यह,
जलती चिताओं पर रोटी सेकने वाले नजाने किन हैवानों की रोज़ी है यह।

करोड़ों की तादात में नमाज़ थी, कोहली वाटसन के लिए उस शाम,
काश बस एक दुआ लगजाति, मेरि अधजली माँ, बिखरे शावक के नाम।


आज घुट रहा दम जीने में, उठ रहा है सवाल सीने में,
क्या विशवास करोगे, खुदके मटके का पानी भी पीने में?

सोमवार, 21 मार्च 2016

मांसाहारी बकरी

जो बेजुबानों की न्यायलय होती, तोह इंसान सजाये मौत को सिद्धर्ता।
जो आसमान के फेफड़े होते, तोह इंसान नामक कैंसर का इलाज होता।

आज आदमखोर शेरोँ को खुद आदम से बचने की नौबत है।
हवस की इस आड़ में, इज़्ज़त बचाना एक व्यर्थ सा मकसद है। 

इंसानियत तोह बस एक मखौल है, किताबी ज्ञान का,
समझदारी तोह बस अब फायदा-नुक्सान तोलने में है। 

भूत, भविसशया, वर्तमान अब हो चूका है इतिहास, 
आया अब आधुनिक काल का क्षेत्र भाया !
जहाँ लाखों दिखेंगे, लिखेंगे लेकिन मिलेंगे नहीं,
बोलेंगे लेकिन बिनबोले दिल की सुनेंगे नहीं। 

बुधवार, 16 मार्च 2016

कर्मलोक से यमलोक तक

सोमरस के उस प्याले ने कुछ ऐसी धड़कन रोकी,
ना तोह सांसें मेरी रही, ना हो सकी खुदा की !

पैसा, बांग्ला, गाडी, चाकर, क्या मिला मुझे इनको पाकर,
मेरी आखरी साँसे लेते, बच्चे झगडे उन्सब्की खातर !

दूध फटे है, पनीर बनने को,
यहाँ जिगर फटा है मेरे मरने को!

मरना इक दिन सबको है, कोशिशें चाहे करलो हज़ार,
कलयुग की इस दुनिया में, मेरा हरी बीके है बीच बाजार!

दाम लगा आज मेरा यहाँ, पाप पुण्य के तराज़ू में तोलकर,
यमलोक आकर पता लगा, सस्ता निकला ईमान टटोलकर!

आखरी सवाल मैंने मरते हुए पूछा खुदसे, क्या में भी एक पिशाच तोह नहीं था?
तब आवाज़ आई अंदर से, नहीं नहीं, तुम इंसान उन जीवों को भी विलुप्त कर चुके हो।

बुधवार, 2 मार्च 2016

मुंह बोला पति

ओये राजू प्यार न करियो, डरियो, दिल टूट जाता है। सभीने आजसे पहले यह गाना सुना हुआ था सिवाए के अपने मूरखराजा राजू के। राजू खट-पट करता घज़ियाबाद में रहनेवाला एक बाँका नौजवान था, जिसके २४ घंटे के दिन में १८ घंटे सिर्फ यही सोचने में जाते थे की कैसे वह गुलेल बनाये और चिड़िया को मारे (यहाँ इस वाक्य का मतलब है, की कैसे वह लड़कियां पटाने के नए-नए पैंतरा ढूंढे) हररोज़ एक नयी लड़की, हररोज़ एक नया पैंतरा, और हररोज़ एक पुरानी वाली का जूता। अपना राजू कुत्ते की दुम जैसा टेढ़े दिमाग का, और मिश्री के टुकड़े जैसी मीठी जुबां का एक सुन्दर लेकिन कड़का नौजवान था ।

राजू की माताजी, बिजली देवी जोकि अपने ज़िले की इकलौति महिल पुलिस कांस्टेबल थी, उसके जन्म के, ४ साल बाद ही स्वर्ग को सिधार गई, और राजू के इकलौते सगे पिताजी, विभीषण सिंह, जो की न्यायलय के जज साहब के यहाँ एक बटलर एवं मालिश वाले की नौकरी करते थे, अपने लौंडे की करतूतों से बड़े परेशान थे। क्योंकि राजू, शादी की उम्र में आकर भी अपनी कच्ची कलियाँ खिलाने से बाज़ नहीं आ रहा था, और परिवार की आवक के नाम पे सिर्फ बदनामी और ज़िल्लत कमाए जा रहा था। विभीषण साहब जोकि परिवार में मजरे भैया की भूमिका में रहे थे, अब अपनी दोनों बहनों की मदद से राजू को सुधारने का हल ढूंढने चल पड़े। 

अपने पुरे जीवंत काल में विभीषण सिंह ने कभी किसीभी कैफ़े में कदम नहीं रख्हा था, लेकिन अपनी शहरी बहनों के कहने पर CCD नामक एक काफी-शॉप में सभीने मिलनेका निर्णय किया। रविवार का दिन था, राजू के पिताजी अपनी सफ़ेद सूती धोती छोड़ आज लाल पतलून में गज़ब ढा रहे थे। इतने गज़ब, जैसे खुद भी अब अपने लड़के की टेहड़ी राह पे चलने निकले हो। "गुड मॉर्निंग सर" बोलके कैफ़े के प्रबंधक ने विभीषण साहब का स्वागत किया, विभीषणजी की नौकरी के कारण, उन्हें इतनी इज़्ज़त लेने का सौभाग्य कम ही हासिल होता था। तकरीबन १५ मिनट के कड़े इंतज़ार के बाद दोनों बहनें आई, दोनों विभीषण से मिली, लेकिन औरत होने के नाते दोनों बहनों ने अपना धर्म निभाते हुए, आते ही अपनी-अपनी सास की बुराइयों के पुल बांधना शुरू करदिये, तभी विभीषणजी ने सभ्र का आपा खोते हुए टोका, "अरे यहाँ हमारे लौंडे पे लगाम लग नहीं रही, और तुम दोनों गुड़बक अपनी घर की महाभारत से ऊपर सोच ही नहीं रहीं।' अब दोनों बहनों ने अपनी एकाग्रता को राजू की बुराइयों की तरफ बंटोरा और सुझाव देना शुरू करदिये। तकरीबन ३ घंटे बीत गए, और अभी  भी राजू नामके भूत की चोटी पकडमें नहीं आई, तभी अचानक सबसे छोटी बहन ने एक धमाकेदार सुझाव रखा, "भिभीषण भैया,तुम तनिक दूजे विवाह के लिए काहे नहीं विचारविमर्श करते?"  विभीषण यह सुजाव सुनकर गुस्सेसे लाल हो गया क्योंकि उसने बिजली के अवसान के बाद, कभी किसी पराई औरत पर आँख उठाके नहीं देखा था। विभीषण ने साफ़ अक्षरों में इस सुझाव की खिड़की पर ताला लगाते हुए निन्दा की, तभी बड़ी बहन ने सुज्झाव को मोड़ते हुए कहा, "अरे सचमुच का विवाह नहीं, एक मुंह बोला पति, और राजू के दिल में एक खौफ बिठाने के लिए यह मुंह बोले पति की छवि, बड़ा ही अद्भुत विचार है, यह चीज़ राजू को उसकी ज़िम्मेदारियों का एहसास ज़रूर दिलवा देगी।" विभीषण इस चीज़ पे गहराई में सोचकर सहमत हुआ, और वेटर से बिल मंगवाते हुए जाने की तैयारी करदी। टिप में ३ रुपये देते हुए विभीषण ने ठाठ से कहा, "ऐश करो लड़कों जाओ"। 

घर जाते ही सबसे पहले विभीषण ने अपनी लाल पतलून बदलकर सूती धोती डाली, और चैन से खाट पर बैठकर राजू को आवाज़ लगाईं, पिताजी की आवाज़ सुनकर राजू दौड़ा चला आया, क्योंकि उसको पिताजी को देखने से ज़्यादा लगाव उनसे सवासौ रुपये उधार लेने का था। राजू के पिताजी ने पैंतरा आज़माते हुए कहा, "ले बेटा यह तोहरे मनपसंद मोतीचूर के लड्डू।" राजू इतनी उदारता देख भौचक्का रह गया और उसे दाल में कुछ तोह काला नज़र आने लगा। कुछ मिनट गुज़रे, रजु के लड्डू के एक एक निवाले पर उसका पिताजी पे शक गहराता चला गया। और उसने  पिताजी से अंत में पूछ ही लिया, "बाबूजी आज लड्डू किस खुसी में खिलाई रहे हो?" बाबूजी के मन में एक शैतानी मुस्कान छलक उठी और उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "हमका तुहरी दूसरी मैया मिलगई है बे।" पिताजी की यह बात सुन राजू की आँखे फटी की फटी रह गयी, मोतीचूर खाते-खाते ज़िन्दगी के सारे मोती चूर होते दिखने लगे। राजू ने दूसरे ही क्षण पिताजी के करीब आकर पूछा, "अरे पिताजी सठियायेगये हो का, अभी हमरे विवाह की उम्र में तुम सुहागरात मनाओगे, यह सब तुमको सोभा देता है का ?" पिताजी ने तब मौके पे चौका मारते हुए कहा, "बेटा, तू तोह तेरी करतूतों से अब बाज आने से रहा, तू कब समझेगा की किसी भी मकान को एक घर और किसी भी जानवर को एक मरद, सिर्फ एक औरत ही बना सकती है।" राजू को बात कान में और संदेसा दिल में बैठा, और उसने पिताजी को सभी उलटे काम छोड़ छाड़, चाँद जैसी बहु लानेका और अम्बानी जैसा व्यवसाय खड़ा करनेका वादा करदिया। 

आज इस बात को १८ साल बीत चुके हैं, हमारा राजू आज एक चाँद से भी सुन्दर साथी का पति और कमल से भी कोमल बेटी का बाप बन चुका है। और आज भी अखसर हमारे मजरे विभीषण भैया, अपनी बहनों के साथ सूती धोती पहनें, मोतीचूर के लड्डू के मज़े लेते हुए देखे जाते हैं।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

यह जाम उन फरिश्तों के नाम

एक रिश्ता है अनोखा, जो खून का नहीं । 
जज़्बा है गहरा, जैसे अजूबा कोई। 

ज़िन्दगी घिरी है सौ मुसीबतों से, काँधे भरे टन भारी बोझों से,
लेकिन यार बना देते हैं हर लम्हा यादगार, हंसी के उन मोझों से । 

मित्रता कोई बढ़ती सीढ़ी नहीं, जिसका इस्तमाल फायदे के लिए किया जाए,
यह एक भोला विशवास है, जिसको किसी भी कायदे से बढ़कर निभाया जाए । 

सोमवार, 25 जनवरी 2016

लप्पन बनगए Gentleman

'लप्पन के पापा, अजी सुनते हो', इमरती पुकारी। इस्पे श्री लोभीराम, डाक मंत्रालय के बाबू, फुसफुसाते हुए बोले 'पिछले १५ साल से, और कर क्या रहा हूँ। इमरती ताने को नज़रअंदाज़ करते हुए बोली 'कल लप्पन के मास्टरजी बतिया रहे थे, कह रहे थे की मिलना चाहते हैं आपसे'। इसपर हमारे लोभिराम घुर्राये ' अरे अब कौनसा कहर ढा लिया इसने ?'। यह सुनकर इमरती ने मौके पे चौका मारते हुए ताने का जवाब दे ही दिया, 'आखिर लौंडा किसका है, कलको अगर शाळा से निकाल भी दे, तोह कोई आश्चर्य नहीं होगा मुझे!'बाबू एका-एक  ताने पे पलटवार किये और बोले 'याद रखना तुम्हारा भी पूरा योगदान था, लप्पन की लाली में'।

लप्पन जो की मोटापे के हर कोने से भद्देपन का एक अनोखा नज़ारा दिखाया करता था, यह सब महाभारत छोड़ लगा हुआ था अपने नाश्ते की प्लेट चाटने में, तभी पीछे से बाबूजी फिर घुर्राये "अब क्या प्लेट भी खालेगा क्या पेटू कहींके?" इसपर महानुभाव लप्पन ने दूसरे ही क्षण ध्वनि की गति से प्लेट टेबल के कोने में रखदी और नाटकी भोलेपन में पूछा 'चलें पापा?"। लोभीराम ने और २-३ खरी खोटी सुनाते हुए, शाळा जाने लप्पन को लेके निकले, तभी अर्धांगिनी इमरती ने टोकते हुए कहा 'लप्पन के पापा, अजी सुनते हो, आते वक्त ज़रा १ किलो अरंडी का तेल ले आईएगा, गेहूं में लगाना था", बाबू भड़के लेकिन अपनी भड़ास की ज्वाला तृप्त करते मेंढक सी कटाक्ष आवाज़ में ताना दिए बोले "हाँ-हाँ  क्यों नहीं, कहो तोह खेत से गेहूं भी जोत लाऊँ।" आखिर अब दोनों बाप बेटे निकल पड़े शाळा की तरफ।

बाबूजी शरारत का सिर्फ अंदाजा लगाते हुए पूरे रास्ते साइकिल के पीछे बैठे लप्पन को डांट-फटकारते हुए आये, क्योंकि  ऐसा पहली बार  नहीं था की लप्पन की शाळा से कोई शिकायत आई हो। लप्पन और बाबूजी शाळा पहुंचे, तब जाकर की  लप्पन ने चैन की सांस लेते हुए डांट फटकार से छुटकारा पाय। लेकिन महानुभाव लप्पन की आज़ादी की खटिया खड़ी करने तभी शाळा के बहार ही उनके वर्ग शिक्षक हिटलर मास्टर जी मिल गये।

हमारे हिटलर मास्टर का नाम उनकी छोटी चार्ली मुच्छि और अपने कड़क अंदाज़ के सम्मान में दिया गया था। हिटलर जी के पास जैसे लाल भूशर्ट और नीली पतलून का खज़ाना हो, इस तरह हररोज़ ठाठ से वही रंग ओढ़े शाळा आ जाया करते थे। उनका पीला स्कूटर जो की बच्चों की शरारतों का काफी शिकार बन चूका था, उनकी तशरीफ़ को आज भी संभाले चल रहा था। हिटलर मास्टर ने शाळा के बाहर ही लप्पन की परेड लेना शुरू करदी, 'लप्पन, क्या यही तुम्हार बाबूजी है?' लप्पन हक्लाते हुए बोला 'हाँ यही है मेरा बाप, मेरा मतलब पिताजी हैं। लप्पन की ऐसी भाषा सुन हिटलरमास्टर ने कान के नीचे दो लपेड लगाते हुए पूछा, 'ऐसे बोलते हैं अपने पिताजी को, यही सिखाया है क्या तुम्हारे घरवालों ने?' लोभीराम वहीँ खड़े अपनी परवरिश की बैंड बजते हुए देख ही रहे थे, तब हिटलर जी ने पिताजी की तरफ आँखों की बन्दुक ताड़ते पूछा, 'क्या ख़याल रखते हो अपने बच्चों का, क्या सिखाते हो, कैसी करतूत करता है आपका लौंडा, अंदाजा भी है क्या आपको?'  अब लप्पन के लिए एक ही नहीं बल्कि दो-दो हिटलर पैदा हो चुके थे, हीटरजी ने रामकहानी आगे बढ़ाते हुए कहा 'कल आपके सपूत ने  किसीको भी इक्तलाह किये बगैर, शाळा की दिवार कूदी और इक पूरा बस्ता भरके चॉकलेट और टॉफी लेकर आया।' यह सुन आश्चर्य से पिताजी का मन विश्लित हो गया, क्योंकि उन्हें इस बात की पुष्टि थी, की उनका लप्पन जितनी भी शैतानी करले लेकिन शाळा से बंक कतै नहीं मार सकता।' पिताजीने ना चाहते हुए भी पास ही खड़े लड़का-लड़की को बात करते सूना और वह सुनकर, इस बार उन्होंने लप्पन का पक्ष लेने का निरनय किया और पूछा 'क्यों लप्पन, क्या यह सच है?' लप्पन ने नज़रें छुपाते हुए अपना सर हिलाकर हाँ का इशारा किया।  हिटलरजी को उम्मीद थी की इस बार तोह लप्पन की धुलाई पक्की है, लेकिन विपरीत जाकर लोभी राम ने सिर्फ लप्पन को इतना ही कहा 'आज के बाद ऐसा नहीं होना चाहिए।', और यह बोलकर अपनी द्विचक्रिका लिए चले गए। लप्पन और हिटलर्जी दोनों बाबूजी के इस अंदाज़ को देख कर भौचक्के रह गए, क्योंकि लप्पन ने अपने पिताजी को इससे पहले इतना ज़्यादा भरोसा, उनके कपूत की करतूतों पर करते नहीं देखा था। अब लप्पन ख़ुशी से और हिटलरजी गुस्से से अपना-अपना झोला लिए शाळा में चल दिए।  

वहां बाबूजी पुरे रास्ते मुस्कुराते हुए, साइकल चला रहे थे। अचानक उन्हें रास्ते में आने वाली हर चीज़ सुहानी सी लगने लगी थी, घास ज़्यादा हरी, गाय ज़्यादा दुदाहा और आसमान ज़रा ज़्यादा नीला सा महसूस होने लगा था। घर पहुँचने से पहले उन्होंने किरयाने की दूकान से एक गुड का टुकड़ा ख़रीदा था। घर पहुँचते ही इमरती ने उनका स्वागत एक सुनहरे सवाल से किया 'अरंडी का तेल लाये?' और बाबूजी ने इमरती की घरेलु दांत को भुलाकर प्यार से पुकारते हुए गुड की चिपटी खिलाई, और कहा 'हमारी प्यार इमरती, हैप्पी चॉकलेट डे।'  

शनिवार, 23 जनवरी 2016

क्यूँ

टुकड़ों पे पलने की आदत सी है मुझे, 
कीमत से अधिक की दानत सी है मुजे।

कर्म न करते हुए भी फल की फिक्र करता हूँ ,
रस्ते पे रहकर भी स्वप्नमहल में लेटा हूँ। 

रोटी-कपडा-मकान से अधिक की आशा करने वालों को शायद पता नहीं,
की कपडे के मकान में रहनेवाले, रोटी की सिर्फ आशा ही कर सकते है। 

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

जुगनू और Jessica

जुगनू, नाम से ही रोम-रोम में एक चंचलता दौड़ उठती है। जैसा उसका नाम, वैसा उसका काम।  एक मनमौजी मौला, जिसके जीवन में ना कोई फ़िक्र थी, ना कोई नाराज़गी। उसकी शरारती अदाओं से मोहल्ले के लोगों का जीवन एक बवाल बने रख्खा था, लेकिन उसकी मासूम सी आवाज़ और बड़ी भूरि आँखों से उसकी सारी शरारतों पर एक पड़दा सा डल जाता था। आवारा जुगनू, आते जाते लोगों को मस्ती से जीने की अलग तरंग झलकाया करता था।

११ जनुअरी की बात है, जुगनू मदहोशी से अपना मस्ती भरा खेला खेल रहा था। अचानक, एक गतिशील वाहन ने उसका ध्यान बंटोरा। जुगनू ने इस्से पहले वह मोटर अपने इलाके में कभी नहीं देखि थी। अपनी जिज्ञासा को त्र्रुप्त करने, जुगनू एक कोना पकडे, मोटर को ताड़ने लगा। अचानक एक लाल दुपट्टा गाडी से उड़ा, और उस लाली को पकड़ने, कमल-पंखुड़ियों से भी कोमल एक हाथ खिड़की से छलका। यह देख, जुगनू की आँखें किसी मेंढक की आँखों से भी दुगनी बहार आ गई। क्योंकि उस्सने अपने पूरे जीवनकाल में इससे पहले कभी इतना खूबसूरत नज़ारा महसूस नहीं किया था। मोटर रुकी, जुगनू झुका, उसने देखा की बादलों से भी ज़्यादा सफ़ेद, एक गोरी मेम मोटर से उतरी, और अपने पति की आवाज़ में 'Jessica' नाम सुनते ही, किसी बड़े से शाहिनिवास में दौड़ छुप गयी। आवारा जुगनूं, वहीँ Jessica पे मर मिटा, लेकिन दिल टुटा जुगनूं यह जानता था की उनका मिलना असंभव से भी बढ़कर है। अब दीवाने जुगनूं के जीवन का उद्देश्य हररोज़ बस उसी शाहिनिवास की खिड़की पे तांकना और Jessica को बाल संवारते हुए देखना थ। कुछ महीने गुज़ारे और जुगनू ने बेजोड़ कोशिशें और अनगिनत मायाजालों से Jessica का ध्यान खींचने की अखंड कोशिशें करी, लेकिन नाकामयाब रह। 

एक दिन Jessica की हमारे महा-नायक, जुगनूं पे नज़र पडी। जुगनूं की तरसती नम आँखे देख, Jessica से राहा न गया और वह व्याकुलता से दौड़ उठी। अपने सारे शाही बंधन तोड़, वह उससे मिलने दरवाज़े पर आ गयि। अब दोनों एक दूसरे को ऐसे देख रहे थे की जैसे सदियों से बस सिर्फ इसी प्यार के सैलाब का इंतज़ार था। 


Jessica ने अपने कदम बढाए और जुगनूँ के बिलकुल करीब आ गई। एकाएक उसने अपने नरम-स्पर्श हथेलिओं से जुगनूं की पीठ सहलाने लगी। अपना जुगनूं Jessica के उस दुलार को देख अपनी दूम हिलाते हुए कर्तव् दिखाने लगा।

इसी तरह आज भी जुगनूं और Jessica, चोरी चुप्पे Parle-G खाने-खिलाने के बहाने मिलते हैं। और एकदूजे के साथ अपने जीवन की सबसे मासूम घडी ग़ुज़्ज़ारते हैं।

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

दोपहर की निद्रा की अलग ही है मुद्रा।

वह बिस्तर की गर्माहट,
वह सर पे बैठा सूरज। 

वह उबासी के मधुर संगीत में, चिडिओ का चेचेहाना। 
वह आलस भरी अंगड़ाइयां लेती, सुंदरियों का मेह्खाना।

एक अजीब सा उल्लास लाती वह मुद्रा,
जहा सोने वाला जाने  है की कमरे के उस पार, अनिद्र बुद्धिजीवियों की एक दुनिया है।

जो लगी  है इसकी आदत तो नशा है ये, 
निशाचरी दुनिया के दाखिले का अलग ही मज़ा है ये।

न जगाइए मुझे केहते हुए की काम करनेको है, 
ना सताइये मुझे केहते हुए की शाम होनेको है।

रविवार, 17 जनवरी 2016

कामयाबी, एक मदमस्त केला।

क्या उस नन्हे से बन्दर को देख रहे हो, कितना ख़ुशी से व्याकुल है वह उस अधसड़े केले को छील कर । उसकी चेहरे की ललाहट ऐसी, जैसे उससे ज़्यादा प्यारी और पीली चीज़ उसने अपनी उछालती-कूदती ज़िन्दगी में देखि ही न हो । लेकिन नन्हा शावक अपनी प्रफुल्ता में भूल रहा है , की उसके पीछे इसी फिराक में एक बड़ा सा वानर उसीके आहार को घूर रहा है। कुछ इसी माध्मस्त नन्हे शावक और खूंखार बड़े वानर की भूमिका निभाये जीवन जी रहे है हम, थोड़ी ख़ुशी-थोड़ा डर। 

ख़ुशी हमें इस बात की है की हम कामयाबी से बस दो कदम पीछे है, और डर इस बात का की उसे चूमने से पहले, कही वह रूठ चली ना जाये हमसे।कामयाब व्यक्ति वह नहीं, जो अपनी मनचाहि हर मनोकामना हासिल करले, बल्कि वह है जो उसही मनोकामना के न प्राप्त होने पर, उदासी के महतम् न मनाये। 

आज नहीं तोह कल कामयाबी ज़रूर मिलेगी, क्योंकि इमली नहीं तोह जिमली ज़रूर मिलेगि।