सोमवार, 25 जनवरी 2016

लप्पन बनगए Gentleman

'लप्पन के पापा, अजी सुनते हो', इमरती पुकारी। इस्पे श्री लोभीराम, डाक मंत्रालय के बाबू, फुसफुसाते हुए बोले 'पिछले १५ साल से, और कर क्या रहा हूँ। इमरती ताने को नज़रअंदाज़ करते हुए बोली 'कल लप्पन के मास्टरजी बतिया रहे थे, कह रहे थे की मिलना चाहते हैं आपसे'। इसपर हमारे लोभिराम घुर्राये ' अरे अब कौनसा कहर ढा लिया इसने ?'। यह सुनकर इमरती ने मौके पे चौका मारते हुए ताने का जवाब दे ही दिया, 'आखिर लौंडा किसका है, कलको अगर शाळा से निकाल भी दे, तोह कोई आश्चर्य नहीं होगा मुझे!'बाबू एका-एक  ताने पे पलटवार किये और बोले 'याद रखना तुम्हारा भी पूरा योगदान था, लप्पन की लाली में'।

लप्पन जो की मोटापे के हर कोने से भद्देपन का एक अनोखा नज़ारा दिखाया करता था, यह सब महाभारत छोड़ लगा हुआ था अपने नाश्ते की प्लेट चाटने में, तभी पीछे से बाबूजी फिर घुर्राये "अब क्या प्लेट भी खालेगा क्या पेटू कहींके?" इसपर महानुभाव लप्पन ने दूसरे ही क्षण ध्वनि की गति से प्लेट टेबल के कोने में रखदी और नाटकी भोलेपन में पूछा 'चलें पापा?"। लोभीराम ने और २-३ खरी खोटी सुनाते हुए, शाळा जाने लप्पन को लेके निकले, तभी अर्धांगिनी इमरती ने टोकते हुए कहा 'लप्पन के पापा, अजी सुनते हो, आते वक्त ज़रा १ किलो अरंडी का तेल ले आईएगा, गेहूं में लगाना था", बाबू भड़के लेकिन अपनी भड़ास की ज्वाला तृप्त करते मेंढक सी कटाक्ष आवाज़ में ताना दिए बोले "हाँ-हाँ  क्यों नहीं, कहो तोह खेत से गेहूं भी जोत लाऊँ।" आखिर अब दोनों बाप बेटे निकल पड़े शाळा की तरफ।

बाबूजी शरारत का सिर्फ अंदाजा लगाते हुए पूरे रास्ते साइकिल के पीछे बैठे लप्पन को डांट-फटकारते हुए आये, क्योंकि  ऐसा पहली बार  नहीं था की लप्पन की शाळा से कोई शिकायत आई हो। लप्पन और बाबूजी शाळा पहुंचे, तब जाकर की  लप्पन ने चैन की सांस लेते हुए डांट फटकार से छुटकारा पाय। लेकिन महानुभाव लप्पन की आज़ादी की खटिया खड़ी करने तभी शाळा के बहार ही उनके वर्ग शिक्षक हिटलर मास्टर जी मिल गये।

हमारे हिटलर मास्टर का नाम उनकी छोटी चार्ली मुच्छि और अपने कड़क अंदाज़ के सम्मान में दिया गया था। हिटलर जी के पास जैसे लाल भूशर्ट और नीली पतलून का खज़ाना हो, इस तरह हररोज़ ठाठ से वही रंग ओढ़े शाळा आ जाया करते थे। उनका पीला स्कूटर जो की बच्चों की शरारतों का काफी शिकार बन चूका था, उनकी तशरीफ़ को आज भी संभाले चल रहा था। हिटलर मास्टर ने शाळा के बाहर ही लप्पन की परेड लेना शुरू करदी, 'लप्पन, क्या यही तुम्हार बाबूजी है?' लप्पन हक्लाते हुए बोला 'हाँ यही है मेरा बाप, मेरा मतलब पिताजी हैं। लप्पन की ऐसी भाषा सुन हिटलरमास्टर ने कान के नीचे दो लपेड लगाते हुए पूछा, 'ऐसे बोलते हैं अपने पिताजी को, यही सिखाया है क्या तुम्हारे घरवालों ने?' लोभीराम वहीँ खड़े अपनी परवरिश की बैंड बजते हुए देख ही रहे थे, तब हिटलर जी ने पिताजी की तरफ आँखों की बन्दुक ताड़ते पूछा, 'क्या ख़याल रखते हो अपने बच्चों का, क्या सिखाते हो, कैसी करतूत करता है आपका लौंडा, अंदाजा भी है क्या आपको?'  अब लप्पन के लिए एक ही नहीं बल्कि दो-दो हिटलर पैदा हो चुके थे, हीटरजी ने रामकहानी आगे बढ़ाते हुए कहा 'कल आपके सपूत ने  किसीको भी इक्तलाह किये बगैर, शाळा की दिवार कूदी और इक पूरा बस्ता भरके चॉकलेट और टॉफी लेकर आया।' यह सुन आश्चर्य से पिताजी का मन विश्लित हो गया, क्योंकि उन्हें इस बात की पुष्टि थी, की उनका लप्पन जितनी भी शैतानी करले लेकिन शाळा से बंक कतै नहीं मार सकता।' पिताजीने ना चाहते हुए भी पास ही खड़े लड़का-लड़की को बात करते सूना और वह सुनकर, इस बार उन्होंने लप्पन का पक्ष लेने का निरनय किया और पूछा 'क्यों लप्पन, क्या यह सच है?' लप्पन ने नज़रें छुपाते हुए अपना सर हिलाकर हाँ का इशारा किया।  हिटलरजी को उम्मीद थी की इस बार तोह लप्पन की धुलाई पक्की है, लेकिन विपरीत जाकर लोभी राम ने सिर्फ लप्पन को इतना ही कहा 'आज के बाद ऐसा नहीं होना चाहिए।', और यह बोलकर अपनी द्विचक्रिका लिए चले गए। लप्पन और हिटलर्जी दोनों बाबूजी के इस अंदाज़ को देख कर भौचक्के रह गए, क्योंकि लप्पन ने अपने पिताजी को इससे पहले इतना ज़्यादा भरोसा, उनके कपूत की करतूतों पर करते नहीं देखा था। अब लप्पन ख़ुशी से और हिटलरजी गुस्से से अपना-अपना झोला लिए शाळा में चल दिए।  

वहां बाबूजी पुरे रास्ते मुस्कुराते हुए, साइकल चला रहे थे। अचानक उन्हें रास्ते में आने वाली हर चीज़ सुहानी सी लगने लगी थी, घास ज़्यादा हरी, गाय ज़्यादा दुदाहा और आसमान ज़रा ज़्यादा नीला सा महसूस होने लगा था। घर पहुँचने से पहले उन्होंने किरयाने की दूकान से एक गुड का टुकड़ा ख़रीदा था। घर पहुँचते ही इमरती ने उनका स्वागत एक सुनहरे सवाल से किया 'अरंडी का तेल लाये?' और बाबूजी ने इमरती की घरेलु दांत को भुलाकर प्यार से पुकारते हुए गुड की चिपटी खिलाई, और कहा 'हमारी प्यार इमरती, हैप्पी चॉकलेट डे।'  

शनिवार, 23 जनवरी 2016

क्यूँ

टुकड़ों पे पलने की आदत सी है मुझे, 
कीमत से अधिक की दानत सी है मुजे।

कर्म न करते हुए भी फल की फिक्र करता हूँ ,
रस्ते पे रहकर भी स्वप्नमहल में लेटा हूँ। 

रोटी-कपडा-मकान से अधिक की आशा करने वालों को शायद पता नहीं,
की कपडे के मकान में रहनेवाले, रोटी की सिर्फ आशा ही कर सकते है। 

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

जुगनू और Jessica

जुगनू, नाम से ही रोम-रोम में एक चंचलता दौड़ उठती है। जैसा उसका नाम, वैसा उसका काम।  एक मनमौजी मौला, जिसके जीवन में ना कोई फ़िक्र थी, ना कोई नाराज़गी। उसकी शरारती अदाओं से मोहल्ले के लोगों का जीवन एक बवाल बने रख्खा था, लेकिन उसकी मासूम सी आवाज़ और बड़ी भूरि आँखों से उसकी सारी शरारतों पर एक पड़दा सा डल जाता था। आवारा जुगनू, आते जाते लोगों को मस्ती से जीने की अलग तरंग झलकाया करता था।

११ जनुअरी की बात है, जुगनू मदहोशी से अपना मस्ती भरा खेला खेल रहा था। अचानक, एक गतिशील वाहन ने उसका ध्यान बंटोरा। जुगनू ने इस्से पहले वह मोटर अपने इलाके में कभी नहीं देखि थी। अपनी जिज्ञासा को त्र्रुप्त करने, जुगनू एक कोना पकडे, मोटर को ताड़ने लगा। अचानक एक लाल दुपट्टा गाडी से उड़ा, और उस लाली को पकड़ने, कमल-पंखुड़ियों से भी कोमल एक हाथ खिड़की से छलका। यह देख, जुगनू की आँखें किसी मेंढक की आँखों से भी दुगनी बहार आ गई। क्योंकि उस्सने अपने पूरे जीवनकाल में इससे पहले कभी इतना खूबसूरत नज़ारा महसूस नहीं किया था। मोटर रुकी, जुगनू झुका, उसने देखा की बादलों से भी ज़्यादा सफ़ेद, एक गोरी मेम मोटर से उतरी, और अपने पति की आवाज़ में 'Jessica' नाम सुनते ही, किसी बड़े से शाहिनिवास में दौड़ छुप गयी। आवारा जुगनूं, वहीँ Jessica पे मर मिटा, लेकिन दिल टुटा जुगनूं यह जानता था की उनका मिलना असंभव से भी बढ़कर है। अब दीवाने जुगनूं के जीवन का उद्देश्य हररोज़ बस उसी शाहिनिवास की खिड़की पे तांकना और Jessica को बाल संवारते हुए देखना थ। कुछ महीने गुज़ारे और जुगनू ने बेजोड़ कोशिशें और अनगिनत मायाजालों से Jessica का ध्यान खींचने की अखंड कोशिशें करी, लेकिन नाकामयाब रह। 

एक दिन Jessica की हमारे महा-नायक, जुगनूं पे नज़र पडी। जुगनूं की तरसती नम आँखे देख, Jessica से राहा न गया और वह व्याकुलता से दौड़ उठी। अपने सारे शाही बंधन तोड़, वह उससे मिलने दरवाज़े पर आ गयि। अब दोनों एक दूसरे को ऐसे देख रहे थे की जैसे सदियों से बस सिर्फ इसी प्यार के सैलाब का इंतज़ार था। 


Jessica ने अपने कदम बढाए और जुगनूँ के बिलकुल करीब आ गई। एकाएक उसने अपने नरम-स्पर्श हथेलिओं से जुगनूं की पीठ सहलाने लगी। अपना जुगनूं Jessica के उस दुलार को देख अपनी दूम हिलाते हुए कर्तव् दिखाने लगा।

इसी तरह आज भी जुगनूं और Jessica, चोरी चुप्पे Parle-G खाने-खिलाने के बहाने मिलते हैं। और एकदूजे के साथ अपने जीवन की सबसे मासूम घडी ग़ुज़्ज़ारते हैं।

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

दोपहर की निद्रा की अलग ही है मुद्रा।

वह बिस्तर की गर्माहट,
वह सर पे बैठा सूरज। 

वह उबासी के मधुर संगीत में, चिडिओ का चेचेहाना। 
वह आलस भरी अंगड़ाइयां लेती, सुंदरियों का मेह्खाना।

एक अजीब सा उल्लास लाती वह मुद्रा,
जहा सोने वाला जाने  है की कमरे के उस पार, अनिद्र बुद्धिजीवियों की एक दुनिया है।

जो लगी  है इसकी आदत तो नशा है ये, 
निशाचरी दुनिया के दाखिले का अलग ही मज़ा है ये।

न जगाइए मुझे केहते हुए की काम करनेको है, 
ना सताइये मुझे केहते हुए की शाम होनेको है।

रविवार, 17 जनवरी 2016

कामयाबी, एक मदमस्त केला।

क्या उस नन्हे से बन्दर को देख रहे हो, कितना ख़ुशी से व्याकुल है वह उस अधसड़े केले को छील कर । उसकी चेहरे की ललाहट ऐसी, जैसे उससे ज़्यादा प्यारी और पीली चीज़ उसने अपनी उछालती-कूदती ज़िन्दगी में देखि ही न हो । लेकिन नन्हा शावक अपनी प्रफुल्ता में भूल रहा है , की उसके पीछे इसी फिराक में एक बड़ा सा वानर उसीके आहार को घूर रहा है। कुछ इसी माध्मस्त नन्हे शावक और खूंखार बड़े वानर की भूमिका निभाये जीवन जी रहे है हम, थोड़ी ख़ुशी-थोड़ा डर। 

ख़ुशी हमें इस बात की है की हम कामयाबी से बस दो कदम पीछे है, और डर इस बात का की उसे चूमने से पहले, कही वह रूठ चली ना जाये हमसे।कामयाब व्यक्ति वह नहीं, जो अपनी मनचाहि हर मनोकामना हासिल करले, बल्कि वह है जो उसही मनोकामना के न प्राप्त होने पर, उदासी के महतम् न मनाये। 

आज नहीं तोह कल कामयाबी ज़रूर मिलेगी, क्योंकि इमली नहीं तोह जिमली ज़रूर मिलेगि।