शुक्रवार, 24 जून 2016

सागर नहीं, मुझे बूँद ही रहने दो...

खिलौना मेरे बचपन का, खोया कहके छुपाया था, 
मंजरे भैया से बचाने हाँ मैंने ठिकाने लगाया था। 

लाल लकीरें हर विषय में पाया था में रोया था,
लाल निशाँ मेरे गाल पे पाया था में रोया था। 
मुझे मारके रोये मैया, नजाने कैसे यह होजाता था?
दूसरी थप्पड़ के डर से यह सवाल वहीँ दब जाता था। 
कोई तोह मेरी बर्फी चुराता है,
कोई तोह मेरे पैसे उड़ाता है,
दादाजी के वहमों का मैं इकलौता साया था। 
घर ने एक भलीभांति चोर हाँ मुझमे ही पाया था  

गर्मी की छुट्टियां आई,
मेरे मोहल्ले में मिटटी आई,
मिटटी के उन टीलों में मैं मंदिर मस्जिद बनाता था,
धर्म ग्रन्थ के ऊपर जाकर बचपन मैं निभाता था।

खेल-कूद तो बाहाना था ग्लूकोस की बोतल चाटने का,
मोटा शरीर तोह बाहाना था मेरी दबी शक्तियां चुपानेका।
डाबर लाल के ज़माने में, मैं अखरोट दांत तोड़ लाता था,
बैंडऐड बिना के ज़माने में मैं घाव पे थूक लगता था। 
चाचा-मामा के घर जाकर मैं उन्हें घोडा बनाता था,
और उनकी दुखती कमर पर फिर में ही मलहम लगता था 

कमज़ोर नहीं कच्चा था में,
उस भोली माँ का छोटा बच्चा था में,
बचपन की इन बातों को मैं कब तक तुम्हे सुनाऊंगा,
वयस्क शरीर में छुपे बच्चे को कबतक बचा मैं पाउँगा।

लोग कहते हैं अब बड़े होजाने को, अपने पैर पे खड़े होजाने को,
ज़िम्मेदारी खुदकी खुद समझाने को, हँसना छोड़ दुखी होजाने को। 
कैसे मैं समझाऊं इन्हे की जवानी के चंगुल में मैं फंस जाऊँगा,
कैसे मैं समझाऊं इन्हे की बिना बचपन के कहीं मैं मरजाऊँगा। 

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