ओये राजू प्यार न करियो, डरियो, दिल टूट जाता है। सभीने आजसे पहले यह गाना सुना हुआ था सिवाए के अपने मूरखराजा राजू के। राजू खट-पट करता घज़ियाबाद में रहनेवाला एक बाँका
नौजवान था, जिसके २४ घंटे के दिन में १८ घंटे सिर्फ यही सोचने में जाते थे की कैसे वह गुलेल बनाये और चिड़िया को मारे (यहाँ इस वाक्य का मतलब है, की कैसे वह लड़कियां पटाने के नए-नए पैंतरा ढूंढे) हररोज़ एक नयी लड़की, हररोज़ एक नया पैंतरा, और हररोज़ एक पुरानी वाली का जूता। अपना राजू कुत्ते की दुम जैसा टेढ़े दिमाग का, और मिश्री के टुकड़े जैसी मीठी जुबां का एक सुन्दर लेकिन कड़का नौजवान था ।
राजू की माताजी, बिजली देवी जोकि अपने ज़िले की इकलौति महिल पुलिस कांस्टेबल थी, उसके जन्म के, ४ साल बाद ही स्वर्ग को सिधार गई, और राजू के इकलौते सगे पिताजी, विभीषण सिंह, जो की न्यायलय के जज साहब के यहाँ एक बटलर एवं मालिश वाले की नौकरी करते थे, अपने लौंडे की करतूतों से बड़े परेशान थे। क्योंकि राजू, शादी की उम्र में आकर भी अपनी कच्ची कलियाँ खिलाने से बाज़ नहीं आ रहा था, और परिवार की आवक के नाम पे सिर्फ बदनामी और ज़िल्लत कमाए जा रहा था। विभीषण साहब जोकि परिवार में मजरे भैया की भूमिका में रहे थे, अब अपनी दोनों बहनों की मदद से राजू को सुधारने का हल ढूंढने चल पड़े।
अपने पुरे जीवंत काल में विभीषण सिंह ने कभी किसीभी कैफ़े में कदम नहीं रख्हा था, लेकिन अपनी शहरी बहनों के कहने पर CCD नामक एक काफी-शॉप में सभीने मिलनेका निर्णय किया। रविवार का दिन था, राजू के पिताजी अपनी सफ़ेद सूती धोती छोड़ आज लाल पतलून में गज़ब ढा रहे थे। इतने गज़ब, जैसे खुद भी अब अपने लड़के की टेहड़ी राह पे चलने निकले हो। "गुड मॉर्निंग सर" बोलके कैफ़े के प्रबंधक ने विभीषण साहब का स्वागत किया, विभीषणजी की नौकरी के कारण, उन्हें इतनी इज़्ज़त लेने का सौभाग्य कम ही हासिल होता था। तकरीबन १५ मिनट के कड़े इंतज़ार के बाद दोनों बहनें आई, दोनों विभीषण से मिली, लेकिन औरत होने के नाते दोनों बहनों ने अपना धर्म निभाते हुए, आते ही अपनी-अपनी सास की बुराइयों के पुल बांधना शुरू करदिये, तभी विभीषणजी ने सभ्र का आपा खोते हुए टोका, "अरे यहाँ हमारे लौंडे पे लगाम लग नहीं रही, और तुम दोनों गुड़बक अपनी घर की महाभारत से ऊपर सोच ही नहीं रहीं।' अब दोनों बहनों ने अपनी एकाग्रता को राजू की बुराइयों की तरफ बंटोरा और सुझाव देना शुरू करदिये। तकरीबन ३ घंटे बीत गए, और अभी भी राजू नामके भूत की चोटी पकडमें नहीं आई, तभी अचानक सबसे छोटी बहन ने एक धमाकेदार सुझाव रखा, "भिभीषण भैया,तुम तनिक दूजे विवाह के लिए काहे नहीं विचारविमर्श करते?" विभीषण यह सुजाव सुनकर गुस्सेसे लाल हो गया क्योंकि उसने बिजली के अवसान के बाद, कभी किसी पराई औरत पर आँख उठाके नहीं देखा था। विभीषण ने साफ़ अक्षरों में इस सुझाव की खिड़की पर ताला लगाते हुए निन्दा की, तभी बड़ी बहन ने सुज्झाव को मोड़ते हुए कहा, "अरे सचमुच का विवाह नहीं, एक मुंह बोला पति, और राजू के दिल में एक खौफ बिठाने के लिए यह मुंह बोले पति की छवि, बड़ा ही अद्भुत विचार है, यह चीज़ राजू को उसकी ज़िम्मेदारियों का एहसास ज़रूर दिलवा देगी।" विभीषण इस चीज़ पे गहराई में सोचकर सहमत हुआ, और वेटर से बिल मंगवाते हुए जाने की तैयारी करदी। टिप में ३ रुपये देते हुए विभीषण ने ठाठ से कहा, "ऐश करो लड़कों जाओ"।
घर जाते ही सबसे पहले विभीषण ने अपनी लाल पतलून बदलकर सूती धोती डाली, और चैन से खाट पर बैठकर राजू को आवाज़ लगाईं, पिताजी की आवाज़ सुनकर राजू दौड़ा चला आया, क्योंकि उसको पिताजी को देखने से ज़्यादा लगाव उनसे सवासौ रुपये उधार लेने का था। राजू के पिताजी ने पैंतरा आज़माते हुए कहा, "ले बेटा यह तोहरे मनपसंद मोतीचूर के लड्डू।" राजू इतनी उदारता देख भौचक्का रह गया और उसे दाल में कुछ तोह काला नज़र आने लगा। कुछ मिनट गुज़रे, रजु के लड्डू के एक एक निवाले पर उसका पिताजी पे शक गहराता चला गया। और उसने पिताजी से अंत में पूछ ही लिया, "बाबूजी आज लड्डू किस खुसी में खिलाई रहे हो?" बाबूजी के मन में एक शैतानी मुस्कान छलक उठी और उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "हमका तुहरी दूसरी मैया मिलगई है बे।" पिताजी की यह बात सुन राजू की आँखे फटी की फटी रह गयी, मोतीचूर खाते-खाते ज़िन्दगी के सारे मोती चूर होते दिखने लगे। राजू ने दूसरे ही क्षण पिताजी के करीब आकर पूछा, "अरे पिताजी सठियायेगये हो का, अभी हमरे विवाह की उम्र में तुम सुहागरात मनाओगे, यह सब तुमको सोभा देता है का ?" पिताजी ने तब मौके पे चौका मारते हुए कहा, "बेटा, तू तोह तेरी करतूतों से अब बाज आने से रहा, तू कब समझेगा की किसी भी मकान को एक घर और किसी भी जानवर को एक मरद, सिर्फ एक औरत ही बना सकती है।" राजू को बात कान में और संदेसा दिल में बैठा, और उसने पिताजी को सभी उलटे काम छोड़ छाड़, चाँद जैसी बहु लानेका और अम्बानी जैसा व्यवसाय खड़ा करनेका वादा करदिया।
आज इस बात को १८ साल बीत चुके हैं, हमारा राजू आज एक चाँद से भी सुन्दर साथी का पति और कमल से भी कोमल बेटी का बाप बन चुका है। और आज भी अखसर हमारे मजरे विभीषण भैया, अपनी बहनों के साथ सूती धोती पहनें, मोतीचूर के लड्डू के मज़े लेते हुए देखे जाते हैं।
राजू की माताजी, बिजली देवी जोकि अपने ज़िले की इकलौति महिल पुलिस कांस्टेबल थी, उसके जन्म के, ४ साल बाद ही स्वर्ग को सिधार गई, और राजू के इकलौते सगे पिताजी, विभीषण सिंह, जो की न्यायलय के जज साहब के यहाँ एक बटलर एवं मालिश वाले की नौकरी करते थे, अपने लौंडे की करतूतों से बड़े परेशान थे। क्योंकि राजू, शादी की उम्र में आकर भी अपनी कच्ची कलियाँ खिलाने से बाज़ नहीं आ रहा था, और परिवार की आवक के नाम पे सिर्फ बदनामी और ज़िल्लत कमाए जा रहा था। विभीषण साहब जोकि परिवार में मजरे भैया की भूमिका में रहे थे, अब अपनी दोनों बहनों की मदद से राजू को सुधारने का हल ढूंढने चल पड़े।
अपने पुरे जीवंत काल में विभीषण सिंह ने कभी किसीभी कैफ़े में कदम नहीं रख्हा था, लेकिन अपनी शहरी बहनों के कहने पर CCD नामक एक काफी-शॉप में सभीने मिलनेका निर्णय किया। रविवार का दिन था, राजू के पिताजी अपनी सफ़ेद सूती धोती छोड़ आज लाल पतलून में गज़ब ढा रहे थे। इतने गज़ब, जैसे खुद भी अब अपने लड़के की टेहड़ी राह पे चलने निकले हो। "गुड मॉर्निंग सर" बोलके कैफ़े के प्रबंधक ने विभीषण साहब का स्वागत किया, विभीषणजी की नौकरी के कारण, उन्हें इतनी इज़्ज़त लेने का सौभाग्य कम ही हासिल होता था। तकरीबन १५ मिनट के कड़े इंतज़ार के बाद दोनों बहनें आई, दोनों विभीषण से मिली, लेकिन औरत होने के नाते दोनों बहनों ने अपना धर्म निभाते हुए, आते ही अपनी-अपनी सास की बुराइयों के पुल बांधना शुरू करदिये, तभी विभीषणजी ने सभ्र का आपा खोते हुए टोका, "अरे यहाँ हमारे लौंडे पे लगाम लग नहीं रही, और तुम दोनों गुड़बक अपनी घर की महाभारत से ऊपर सोच ही नहीं रहीं।' अब दोनों बहनों ने अपनी एकाग्रता को राजू की बुराइयों की तरफ बंटोरा और सुझाव देना शुरू करदिये। तकरीबन ३ घंटे बीत गए, और अभी भी राजू नामके भूत की चोटी पकडमें नहीं आई, तभी अचानक सबसे छोटी बहन ने एक धमाकेदार सुझाव रखा, "भिभीषण भैया,तुम तनिक दूजे विवाह के लिए काहे नहीं विचारविमर्श करते?" विभीषण यह सुजाव सुनकर गुस्सेसे लाल हो गया क्योंकि उसने बिजली के अवसान के बाद, कभी किसी पराई औरत पर आँख उठाके नहीं देखा था। विभीषण ने साफ़ अक्षरों में इस सुझाव की खिड़की पर ताला लगाते हुए निन्दा की, तभी बड़ी बहन ने सुज्झाव को मोड़ते हुए कहा, "अरे सचमुच का विवाह नहीं, एक मुंह बोला पति, और राजू के दिल में एक खौफ बिठाने के लिए यह मुंह बोले पति की छवि, बड़ा ही अद्भुत विचार है, यह चीज़ राजू को उसकी ज़िम्मेदारियों का एहसास ज़रूर दिलवा देगी।" विभीषण इस चीज़ पे गहराई में सोचकर सहमत हुआ, और वेटर से बिल मंगवाते हुए जाने की तैयारी करदी। टिप में ३ रुपये देते हुए विभीषण ने ठाठ से कहा, "ऐश करो लड़कों जाओ"।
घर जाते ही सबसे पहले विभीषण ने अपनी लाल पतलून बदलकर सूती धोती डाली, और चैन से खाट पर बैठकर राजू को आवाज़ लगाईं, पिताजी की आवाज़ सुनकर राजू दौड़ा चला आया, क्योंकि उसको पिताजी को देखने से ज़्यादा लगाव उनसे सवासौ रुपये उधार लेने का था। राजू के पिताजी ने पैंतरा आज़माते हुए कहा, "ले बेटा यह तोहरे मनपसंद मोतीचूर के लड्डू।" राजू इतनी उदारता देख भौचक्का रह गया और उसे दाल में कुछ तोह काला नज़र आने लगा। कुछ मिनट गुज़रे, रजु के लड्डू के एक एक निवाले पर उसका पिताजी पे शक गहराता चला गया। और उसने पिताजी से अंत में पूछ ही लिया, "बाबूजी आज लड्डू किस खुसी में खिलाई रहे हो?" बाबूजी के मन में एक शैतानी मुस्कान छलक उठी और उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "हमका तुहरी दूसरी मैया मिलगई है बे।" पिताजी की यह बात सुन राजू की आँखे फटी की फटी रह गयी, मोतीचूर खाते-खाते ज़िन्दगी के सारे मोती चूर होते दिखने लगे। राजू ने दूसरे ही क्षण पिताजी के करीब आकर पूछा, "अरे पिताजी सठियायेगये हो का, अभी हमरे विवाह की उम्र में तुम सुहागरात मनाओगे, यह सब तुमको सोभा देता है का ?" पिताजी ने तब मौके पे चौका मारते हुए कहा, "बेटा, तू तोह तेरी करतूतों से अब बाज आने से रहा, तू कब समझेगा की किसी भी मकान को एक घर और किसी भी जानवर को एक मरद, सिर्फ एक औरत ही बना सकती है।" राजू को बात कान में और संदेसा दिल में बैठा, और उसने पिताजी को सभी उलटे काम छोड़ छाड़, चाँद जैसी बहु लानेका और अम्बानी जैसा व्यवसाय खड़ा करनेका वादा करदिया।
आज इस बात को १८ साल बीत चुके हैं, हमारा राजू आज एक चाँद से भी सुन्दर साथी का पति और कमल से भी कोमल बेटी का बाप बन चुका है। और आज भी अखसर हमारे मजरे विभीषण भैया, अपनी बहनों के साथ सूती धोती पहनें, मोतीचूर के लड्डू के मज़े लेते हुए देखे जाते हैं।
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