बुधवार, 1 जून 2016

व्यवसाय

टुटा जूता, फटा थैला, 
इकत्तीस तारिक को मेरा पतलून है मैला। 

घर में मैँ और दरवाज़े पे ताला, 
उधार के चक्कर में निकला मेरा दिवाला।

द्वार पर हर दस्तक लगती है षडियंत्र का खेल मुझे,  
अपना घर ही अब लगता है लेनदारों की जेल मुझे। 

खाने को सिर्फ गाली और जीने को सिर्फ तिनके का सहारा है। 
इस फटेहाल जुआरी को पहली तारीख का वेतन ही गुज़ारा है। 

इस बार के संबलन से वादा है मैं कुछ  बचाऊंगा,
पिछली बार की बचत से माँ को चिमटा दिलाऊंगा। 

इन सपनो को एक दिन मैं ज़रूर पूरा करके दिखाऊंगा,
और यही जूठे वादे करके मैं फिर पैसा जुए पे उड़ाऊंगा।  

लगता है इस बार की बाज़ी तोह मेरी ही है, सोचता हूँ बोली लगालुं थोड़ी ज़्यादा।
ज़र, ज़मीन और जोरू तोह खो ही दी है, इसबार खून बेचकर कमाऊंगा प्यादा।

जुआरी तोह तुम भी हो जो हर घडी एक नया दाव, एक नया पैंतरा खेलते हो,
जुआरी तोह तुम भी हो जो अपनों से ज़्यादा अपने सपनो के बारे में सोचते हो। 

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