सोमवार, 5 सितंबर 2016

कौन कहता है भगवान् सब देख रहा है...

नज़र लगने का मज़हर भी अपने आप में कुछ विपरीत होता है,
ये वह समय है जब पनौती नसीब से दो कदम आगे चलती है। 

जिससे मिलो कोई न कोई मनहूसियत का वाक्या सुनाता है,
जिसपे दिलो-जान छिड़कते हो वो भी उस समय जान खाता है। 

लोगों को तुम्हारी हरकतें आदतों सी लगने लगती है,
चमन पे खिली फूल पंखुड़ी, मुरझाई काली लगने लगती है।

फुक फुक के कदम रखने पर भी पैर फिसल जाता है,
फुक फुक के दुद्ध पीने पर भी छाछ जला जाता है। 

कब्ज़ की गोली लो तोह दस्त लग जाते हैं,
सर्दी के लक्षण में जान लेवा रोग नज़र आते हैं। 

सौ रुपये किलो सेब से सुलेमानी कीड़ा निकल आता है,
विवाह की बातों के बीच महबूबा का नाम निकल जाता है।

मंदिर में दान करने पर भी दुष्ट दानव चप्पल चुरा जाता है,
दादी के बनाये हलवे के निवालों से उन्ही का बाल निकल आता है।

बच्चों को घुमाने लेजाने से २ मिनट पहले ही दूर का फूफा टपक पड़ता है,
बेटी की फेरों से २ मिनट पहले ही ससुर मारुती ८०० की मांग करता है।

बिन बोले बातें समझने वाला एक ही रातमें अजनबी होजाता है,
अगवाह हवाई जहाज़ को बचाने में कोई मासूम जान गँवा बैठता है।

कुछ ऐसे ही फिसलती रेत सी ज़िन्दगी को मुट्ठी में बाँधने चले हैं हम,
कठपुतली होते हुए भी सारा का सारा खेल संभालने चले हैं हम।

ओ मानव इतना ग़ुरूर भी ना कर अपनी कामयाबी पर,
ओ मानव इतना ग़ुरूर भी ना कर अपनी कामयाबी पर,
क्योंकि शवों में जान फूंकने का काम अबभी प्रयोगशाला में नहीं हो पता है।