बुधवार, 20 जुलाई 2016

अद्वैतवाद

ये घुसा में तेरे कान में,
अंदर ही अंदर,
विकराल काली सुरांग में,
मेरी खुराक है तुम्हारा कचरा, 
कहते हैं सब मुझे कनखजूरा। 
कभी नाले की आड़ में कभी कचरे के पहाड़ में,
मादा की खोज में घूमे हम भरे बगान में। 
मैं कनखजूरा हूँ।

मिटटी की खुशबू की आस में, मैंने पूरी गर्मी गुज़ारी है,
कूड़े के उस शाही महल में, हम जैसी और बोहोत बिमारी है।
मैं कनखजूरा हूँ।

एक रात में केले के पत्ते पर चढ़ा,
मधुमक्खी के छोटे छत्ते पर बढ़ा,

शहद की उस मीठी खुशबू से मैं ज़रा आकर्षित हो उठा,
कानों की उस दुनिया को छोड़ मैं मीठे मधु का आशिक हो उठा।

रहते वह ऐसे जैसे कोई संकलित परिवार हो,
उड़ते वह ऐसे जैसे खीर गंगा की शीतल धार हो। 

उनके छे पैर है और मेरे सौ,
मेरा दो काम है और उनके सौ। 

काश मेरे भी पंख होते,
काश मेरे भी डंख होते।
पुष्पों की उन महफिलों से मैं भी कभी अमृत चुराता,
मादा को रिझाने काश मैं भी कोई नाच नचाता।

अफ़सोस इस बात का नहीं की में रेंगता हूँ,
अफ़सोस इस बात का भी नहीं की लोगो के कान मैं फाड़ता हूँ,

बस काश ज़िन्दगी में मैं कभी जगह जगह उड़ पाता,
चढ़ने के अलावा काश में भी जगह जगह घूम पाता,

लेकिन आखिरकार में  कानखजुरा हूँ। 
में  कानखजुरा हूँ।