मंगलवार, 19 जनवरी 2016

दोपहर की निद्रा की अलग ही है मुद्रा।

वह बिस्तर की गर्माहट,
वह सर पे बैठा सूरज। 

वह उबासी के मधुर संगीत में, चिडिओ का चेचेहाना। 
वह आलस भरी अंगड़ाइयां लेती, सुंदरियों का मेह्खाना।

एक अजीब सा उल्लास लाती वह मुद्रा,
जहा सोने वाला जाने  है की कमरे के उस पार, अनिद्र बुद्धिजीवियों की एक दुनिया है।

जो लगी  है इसकी आदत तो नशा है ये, 
निशाचरी दुनिया के दाखिले का अलग ही मज़ा है ये।

न जगाइए मुझे केहते हुए की काम करनेको है, 
ना सताइये मुझे केहते हुए की शाम होनेको है।

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