सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

रुकसाना बेगम

बेगम रुकसाना बीबी मैं मंसूर लालीवाला आपका इकलौता शौहर एक दरख्वास्त लिए आया हूँ,
कृपया अपनी एकाग्रता को इस दिशा एकत्र कीजियेगा।

उस जले टिंडे की भी क्या सुहावनी सी बात थी,
खाला की बनाई सिवइयों भी इसके आगे खाख थी,

जैसे मधुमास पर बिस्तर की दायीं ओर रखा हल्दी का दूध भी चाशनी सा मिष्ठी लगता है,
तुम्हारी सब्ज़ी में डाला कश्मीरी लाल मिर्च भी कुछ दालचीनी सा स्वादिष्ट लगता है।

भाप से भीगे फुलककों पर तुम्हारे स्पर्श का वह एहसास,
पापड की करारी ध्वनि पर तुम्हारी मंद मुस्कान का आभास,

मुझे याद है जब नन्ही फरीदा की खबर कैसे अचार के बहाने सुनाई थी तुमने,
मुझे याद है तिलगुड़ की इच्छा को कैसे मोतीचूर के बहाने तृप्त करवाई थी हमने।

आज आहार तो बस एक आखरी पूल है पुराने प्यार के टापू पोहोंचनेका ,
टिफ़िन की बातें तोह बस बहाना है तुम्हारे हालेदिल का स्वाद जाननेका।

काश वह नंगे लिपटे जिस्मों की रातें वहीँ थम जाती,
अधूरी रहगई सारी वह बातें लापता बन न बेहजाती।

भौतिक बुनियादों को पक्की करने में यूँ ज़िन्दगी न जुट जाती,
तेरे झुमके गिरवी रखवाने से पहले काश मेरी आँखें खुल जाती।

हाँ, आज भी पुराना प्यार ढूंढता, राह भटक जाता हूँ मैं,
भीनी आँखों की नमी झटकता हर शाम घर आता हूँ मैं।

विक्रेता

काले जूते, पीली कमीज, लाल टाई और ठंडा टिफिन,
जेंटलमेन बने बिक्री करवाने निकल पड़े विक्रेता बिपिन।

सुबह के नाश्ते में साहब की गाली,
दोपहर के भोजन की ग्राहक ने लगा डाली।
शाम की रिपोर्ट के साथ नौकरी जाने की धमकी,
सोचा घर जाकर रोउंगा पर वहां बीवी आ धमकी।

हर शाम बाद ज़हन बस एक ही सवाल अपने आप से दोहराता है,
की कंबखत यह रविवार सोमवार के छ: दिन बाद क्यों आता है?

दोसतों, शूरवीर तोह बस एक बार प्राणों की कुर्बानी कर शहीद कहलाता है,
पर विक्रेता टारगेट की पीड़ा को केरोसिन बना हर सपने को जला पल पल मरता है 

भाभीजी के लिए  किफायती डिटर्जेंट,
चुन्नू के लिए सतरंगी खिलोने,
साहब के लिए छुपे कैमरा वाला पेन,
कांता बाई के लिए नीला लेट्रिन का शैम्पू,

हाँ यही मेरा सत्य है।

काश वे कॉलेज के दिनों मैं हर शाम कबीर के दोहे ना दोहराता,
सॉक्रेटीस के सपनों को पीछे छोड़ मैं थोड़ा गणित पर भी ध्यान लगाता।

आज गंजे को कंगी, और कश्मीर में बर्फ तोह बेच सकता हूँ में,
पर क्या खुदके बीके सपनों को वक्त के दाम वापस खरीद सकता हूँ मैं?