मंगलवार, 31 जनवरी 2017

मर्द का दर्द

नामर्द, हिजड़ा, नपुंसक, ये है मेरे घर की पहचान,
बस अब तोह करवटें बदलता हूँ, हालात मेरे बस में कहाँ।

आइए सुनाते हैं तुम्हे मेरे उपनामों के पीछे की दास्ताँ

कुछ हफ्ते पहले की बात है,
हमारी चौथी सालगिरह की रात है,

अर्धांगिनी नए कंचन के कंगन में रूपसुंदरी लग रही थी,
और अपनी छोटी बहन नेहा के तलाख को लिए चिंतित भी। 

मेरी ही मत मारी गयी!
जो नेहा को मैंने हमारे साथ पार्टी में आने को पूछा,
नेहा चल पड़ी,
अर्धांगिनी जल पड़ी। 

साथ खाया थोड़ा ज़्यादा पिया कुछ हँसे कुछ रोये,
कन्धे पर सिरहाने रख गाड़ी की पिछली सीट पर सोये,

नेहा को घर छोड़ा,
और
अर्द्धानिगिनी ने आपा खोया,

"तुम उसे ऐसी नज़र से देख भी कैसे  सकते हो,
मेरी बेहेन है वोह,
मैंने देखा तुम उसे कैसे हँसाने की कोशिश कर रहे थे।"

मुझे एहसास भी नहीं पड़ा कब नशे में अर्धांगिनी ने मुझे कसके दो लप्पड़ लगा दिए,
कह पड़ी "चार साल में एक संतान नहीं और चले मेरी बहन से इश्क़ लड़ाने।"

यह पहली बार नहीं की उसका अधिकारात्‍मक स्वभाव आक्रामक बना हो,
और यह आखरी बार नहीं की पैर की जूती सा मेरा स्वाभिमान फिर कुचला हो। 

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